Saturday, August 19, 2017

शबनमी रोशनी की कुछ बूंदें

श्वेत, सर्द आनन्दमय 

चाँद की मोहब्बत भरी रात 

या कहूँ दर्द भरी रात 

इस चमकीली रात में 

बूँद बूँद झरती चाँदनी 

जहां चाँद से जुदा होती 

सुदूर धरती पर कहीं जाकर 

दर -ब -दर ठिकाना ढ़ूढ़ती 

कभी घास पर जा बैठती 

कभी फूलो की पंखुड़ियों पर सजती 

दूर धरा से चाँद को निहारती 

होकर रागमय आनन्द उठाती 

न उसे मृत्यु का भय 

न ही अस्तित्व मिटने का अफसोस 

न ही अनभिज्ञ सूर्य के सत्य से 

बस हैं चन्द्र के प्रेम में बाँबरी 

करके बलिदान अपने जीवन का 

चन्द्र के लिए सूर्य से जीवनदान है मांगती 

अपने अनन्त प्रेम को जीवित रख सके 

ताकि कल रात फिर मिल सके 

रागिनी बनकर, रोशनी बनकर 

और फिर मिट सके शबनमी मोती बनकर ।

      -आस्था गंगवार © 

Friday, August 18, 2017

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

हरिवंशराय बच्चन

लो दिन बिता लो रात गयी

सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था
दिन में होगी कुछ बात नई
लो दिन बीता, लो रात गई

धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फ़ैले,
सौ रजनी सी वह रजनी थी,
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई

चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी,
पूरब से फ़िर सूरज निकला,
जैसे होती थी, सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रात: कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई

हरिवंशराय बच्चन

Wednesday, June 28, 2017

नाम बड़े दर्शन छोटे

नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और।
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने।
कहं ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर,
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।

मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप,
श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप।
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट हैण्ट में-
ज्ञानचंद छ्ह बार फेल हो गए टैंथ में।
कहं ‘काका’ ज्वालाप्रसादजी बिल्कुल ठंडे,
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे।

देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट,
सेठ छदम्मीलाल के मील चल रहे आठ।
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे,
धनीरामजी हमने प्राय: निर्धन देखे।
कहं ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए कंवारे,
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे।

दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल,
मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल।
रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं,
ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भोंक रहे हैं।
‘काका’ छ्ह फिट लंबे छोटूराम बनाए,
नाम दिगम्बरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए।

पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल,
बिना सूंड के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल।
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी।
कहं ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा,
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा।

दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर,
भागचंद की आज तक सोई है तकदीर।
सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले,
निकले प्रिय सुखदेव सभी, दु:ख देने वाले।
कहं ‘काका’ कविराय, आंकड़े बिल्कुल सच्चे,
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे।

चतुरसेन बुद्धू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध,
श्री आनन्दीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध।
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते,
इंसानों को मुंशी, तोताराम पढ़ाते,
कहं ‘काका’, बलवीरसिंहजी लटे हुए हैं,
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं।

बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल,
सूखे गंगारामजी, रूखे मक्खनलाल।
रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी-
निकले बेटा आसाराम निराशावादी।
कहं ‘काका’, कवि भीमसेन पिद्दी-से दिखते,
कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते।

आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद,
कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद।
भागे पूरनचंद, अमरजी मरते देखे,
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे।
कहं ‘काका’ भण्डारसिंहजी रोते-थोते,
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते।

शीला जीजी लड़ रही, सरला करती शोर,
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर।
निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली
सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली।
कहं ‘काका’ कवि, बाबू जी क्या देखा तुमने?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने।

तेजपालजी मौथरे, मरियल-से मलखान,
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान।
करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई,
वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई।
कहं ‘काका’ कवि, फूलचंदनजी इतने भारी-
दर्शन करके कुर्सी टूट जाय बेचारी।

खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन,
मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन।
चिलगोजा-से नैन, शांता करती दंगा,
नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा।
कहं ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है,
दर्शनदेवी लम्बा घूंघट काढ़ रही है।

कलीयुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ,
चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ।
बाबू भोलानाथ, कहां तक कहें कहानी,
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी।
‘काका’ लक्ष्मीनारायण की गृहणी रीता,
कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता।

अज्ञानी निकले निरे, पंडित ज्ञानीराम,
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम।
रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खुब मिलाया,
दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया।
‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा-
पार्वतीदेवी है शिवशंकर की अम्मा।

पूंछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान,
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान।
घर में तीर-कमान, बदी करता है नेका,
तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा।
सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं,
विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं।

सुखीरामजी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त,
हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ।
रहें सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया,
प्रेमचंद में रत्ती-भर भी प्रेम न पाया।
कहं ‘काका’ जब व्रत-उपवासों के दिन आते,
त्यागी साहब, अन्न त्यागकार रिश्वत खाते।

रामराज के घाट पर आता जब भूचाल,
लुढ़क जायं श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल।
बैठें घूरेलाल, रंग किस्मत दिखलाती,
इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती।
कहं ‘काका’, गंभीरसिंह मुंह फाड़ रहे हैं,
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं।

दूधनाथजी पी रहे सपरेटा की चाय,
गुरू गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय।
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण-
मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण।
‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे,
हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे।

रूपराम के रूप की निन्दा करते मित्र,
चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र।
कामराज का चित्र, थक गए करके विनती,
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती,
कहं ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी,
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी।

नाम-धाम से काम का क्या है सामंजस्य?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य।
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटें न रेखा,
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा।
कहं ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की,
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की।

काका हाथरसी

Sunday, June 25, 2017

पलकें बिछाए तो नही बैठीं

कटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पाँव को मेरे
कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं !

हवाओं में न जाने आज क्यों कुछ-कुछ नमी-सी है,
डगर की उष्णता में भी न जाने क्यों कमी-सी है,
गगन पर बदलियाँ लहरा रही हैं श्याम-आँचल-सी
कहीं तुम नयन में सावन छिपाए तो नहीं बैठीं।

अमावस की दुल्हन सोई हुई है अवनि से लगकर,
न जाने तारिकाएँ बाट किसकी जोहतीं जग कर,
गहन तम है डगर मेरी मगर फिर भी चमकती है,
कहीं तुम द्वार पर दीपक जलाए तो नहीं बैठीं !

हुई कुछ बात ऐसी फूल भी फीके पड़ जाते,
सितारे भी चमक पर आज तो अपनी न इतराते,
बहुत शरमा रहा है बदलियों की ओट में चन्दा
कहीं तुम आँख में काजल लगाए तो नहीं बैठीं!

कटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पाँव को मेरे,
कहीं तुम पंथ सिर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं।

बालस्वरूप साही

तुम्हारी पलकों का कंपना

तुम्हारी पलकों का कँपना ।
तनिक-सा चमक खुलना, फिर झँपना ।
तुम्हारी पलकों का कँपना ।

मानो दीखा तुम्हें किसी कली के
खिलने का सपना ।
तुम्हारी पलकों का कँपना ।

सपने की एक किरण मुझको दो ना,
है मेरा इष्ट तुम्हारे उस सपने का कण होना,
और सब समय पराया है
बस उतना क्षण अपना ।

तुम्हारी
पलकों का कँपना ।

 

अज्ञेय

हम तुम

जीवन कभी सूना न हो
कुछ मैं कहूँ, कुछ तुम कहो।

तुमने मुझे अपना लिया
यह तो बड़ा अच्छा किया
जिस सत्य से मैं दूर था
वह पास तुमने ला दिया

अब ज़िन्दगी की धार में
कुछ मैं बहूँ, कुछ तुम बहो ।

जिसका हृदय सुन्दर नहीं
मेरे लिए पत्थर वही ।
मुझको नई गति चाहिए
जैसे मिले वैसे सही ।

मेरी प्रगति की साँस में
कुछ मैं रहूँ कुछ तुम रहो ।

मुझको बड़ा सा काम दो
चाहे न कुछ आराम दो

लेकिन जहाँ थककर गिरूँ
मुझको वहीं तुम थाम लो ।
गिरते हुए इन्सान को
कुछ मैं गहूँ कुछ तुम गहो ।

संसार मेरा मीत है
सौंदर्य मेरा गीत है

मैंने कभी समझा नहीं
क्या हार है क्या जीत है
दुख-सुख मुझे जो भी मिले
कुछ मैं सहूँ कुछ तुम सहो ।

रामनाथ अवस्थी

Saturday, June 24, 2017

विदा

तुम चले जाओगे
पर थोड़ा-सा यहाँ भी रह जाओगे
जैसे रह जाती है
पहली बारिश के बाद
हवा में धरती की सोंधी-सी गंध
भोर के उजास में
थोड़ा-सा चंद्रमा
खंडहर हो रहे मंदिर में
अनसुनी प्राचीन नूपुरों की झंकार|

तुम चले जाओगे
पर थोड़ी-सी हँसी
आँखों की थोड़ी-सी चमक
हाथ की बनी थोड़ी-सी कॉफी
यहीं रह जाएँगे
प्रेम के इस सुनसान में|

तुम चले जाओगे
पर मेरे पास
रह जाएगी
प्रार्थना की तरह पवित्र
और अदम्य
तुम्हारी उपस्थिति,
छंद की तरह गूँजता
तुम्हारे पास होने का अहसास|

तुम चले जाओगे
और थोड़ा-सा यहीं रह जाओगे|

अशोक बाजपेयी

नामांकन

सिंधुतट की बालुका पर जब लिखा मैने तुम्हारा नाम
याद है, तुम हंस पड़ीं थीं, 'क्या तमाशा है
लिख रहे हो इस तरह तन्मय
कि जैसे लिख रहे होओ शिला पर।
मानती हूं, यह मधुर अंकन अमरता पा सकेगा।
वायु की क्या बात? इसको सिंधु भी न मिटा सकेगा।'

और तबसे नाम मैने है लिखा ऐसे
कि, सचमुच, सिंधु की लहरें न उसको पाएंगी,
फूल में सौरभ, तुम्हारा नाम मेरे गीत में है।
विश्व में यह गीत फैलेगा
अजन्मी पीढ़ियां सुख से
तुम्हारे नाम को दुहराएंगी।

रामधारी सिंह "दिनकर"

Saturday, February 18, 2017

वो अनकहा सा प्यार -1

पहला दिन पहली नज़र
मासूम हँसी और
दिल का मेरे इकरार
वो अनकहा सा प्यार
.
बातें हुइ चंद यादें हुइ
कुछ खोया खोया लगता था
मुझमे ही तो थी मैं पर
मन सोया सोया रहता था
मुझे झ्झोडा जिसने वो था
एक शर्मीला मेरा यार
वो अनकहा सा प्यार
.
था फर्ज हिलोरे मारता
वतन की मोहब्बत कौन जानता
आन्धियां चली मेरे मन में
वो जा रहा था दुर कहीं
बस आँसू ही थे बिछडन में
थी बातें जुबान पर कयी
पर लब खुल ना पा रहे
बस इतना तो पूछूँ मैं
“सच मुझे छोडकर जा रहे?”
दिलों में था जो इंकार
वो अनकहा सा प्यार
.
पलट के भी ना देखना
आँसुओं की कीमत पायी है
है कोरा सच ये बिल्कुल
इसमे थोडी रुसवाई है
अगर पलटी मैं या पलटा वो
तो शायद सब थम जाता
जी लेते मिलकर हम
तो क्युँ ना पलटू इक बार
ये था अनकहा मेरा प्यार
.
वैभव सागर
.

Tuesday, February 14, 2017

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे

ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे

सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे

अदम गोंडवी

क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

‘यह अधिकार कहाँ से लाया?’
और न कुछ मैं कहने पाया -
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में -
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

हरिवंशराय बच्चन

Thursday, February 2, 2017

मुझको तेरी अस्ति छू गई

मुझको तेरी अस्ति छू गई है
अब न भार से विथकित होती हूँ
अब न ताप से विगलित होती हूँ
अब न शाप से विचलित होती हूँ
जैसे सब स्वीकार बन गया हो।
मुझको तेरी अस्ति छू गई है।

पर्वत का हित मुझको जड़ न बनाता
प्रकृति हृदय का तम न मुझको ढँक पाता
आज उदधि का ज्वार न मुझे डुबोता
जैसे सब शृंगार बन गया हो।
मुझको तेरी अस्ति छू गई है।

दरिद्रता का यह मतवाला नर्तन
पीड़ाओं का उसमें आशिष-वर्षन
तेरी चितवन का जो मूक प्रदर्शन
तेरी मुख-अनुहार बन गया हो।
मुझको तेरी अस्ति छू गई है।

विद्यावती कोकिल

आह ! वेदना मिली विदाई

आह! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई

छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई

श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाए फिरती कब की
मेरी आशा आह! बावली
तूने खो दी सकल कमाई

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई

लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई

जयशंकर प्रसाद

Wednesday, February 1, 2017

वो मेरे दिल से वकिफ़. . .

वो मेरे दिल से वाकिफ 

मैं उसकी रूह से वाकिफ 

होती कुछ पल की तकरार 

फिर उमङता बेइंतहा प्यार 

इश्क है बंदिशो से आजाद 

शब्दो से नहीं होता उसे आघात 

मोहब्बत की नहीं कोई परिभाषा 

एहसास ही है उसकी भाषा 

जो दो दिल है समझते 

एक दूसरे को है लिखते पढते 

ये जिस्म है बस एक जरिया 

रूह ही है असली दरिया 

जहाँ गिरकर नहीं कोई निकलता 

सुकून बस डूबकर ही है मिलता 

जमाने की नहीं जिसे परवाह 

चाहत ही है जहाँ दरगाह 

मैं ऐसे इश्क से वाकिफ 

ऐसा इश्क मुझसे वाकिफ….. 

आस्था गंगवार

तू तुझमे कोई और है

​कुछ बातें हैं तेरी बेबाक सी

कुछ बातों में तू मौन है 

कयी राज़ है इस चुप्पी में

पर खामोशियों में एक शोर है 

बस इतना ये कह जाती है 

तू तुझमें कोई और है 

कहीं धरा आकार है तेरा 

कहीं धनक का तू रंग है 

मधुर बिहग सुर में तेरे 

एक बिरह का भी अंग है 

सरगम पे एक मोर है नाचता 

वो तुझमे तेरे संग है 

नदी के बहते पानी सी 

और आसमानो की  सोच है 

कुछ इरादे भी हैं तेरे 

और उनमे ही तेरी मौज है 

ये पेड़ , हवा , बारिश जो है 

तू बँधा इनसे एक डोर है 

सब तुझमे है तुझसे पर 

तू तुझमे कोई और है

वैभव सागर

Sunday, January 15, 2017

देखकर तेरे नयनो में . . .

देखकर तेरे नयनो में जमाना भूल जाती हूँ 

तेरी यादो के गुलिस्तां में रमण करती जाती हूँ 

पकङकर हाथ तेरा खुद को बङा महफूज पाती हूँ 

कदम तुझ ओर बढते ही सारे गम पीछे छोङ आती हूँ 

देखकर तेरे नयनो में जमाना भूल जाती हूँ। 

लगकर तेरे सीने से बङा सुकून पाती हूँ 

लेकर अधरो से तेरा नाम इनकी तकदीर संवारती हूँ 

तेरी बांहो के घेरे में अपना घर बनाती हूँ 

तेरे ख्वाबो में खोने खातिर बिन नींद भी सो जाती हूँ 

देखकर तेरे नयनो में जमाना भूल जाती हूँ। 

तेरी चाहत की खुश्बू से अपनी साँसो को महकाती हूँ 

देखती हूँ प्रतिबिम्ब दर्पण में तुझे सामने पाती हूँ 

सोचकर साथ में तुझको मन ही मन हर्षाती हूँ 

प्रति पल तेरे एहसास से प्यार करती जाती हूँ 

देखकर तेरे नयनो में जमाना भूल जाती हूँ। 

          -आस्था गंगवार © 

बदनाम

​तुम चाहो तो…

अतीत वर्तमान भविष्य भुला कर

लम्हा भर दे सकते हो मुझे सहजता से साथ

और फिर तुम्हारे बग़ैर

 मैं इन लम्हो का बोझ उठाये

 अपनी अस्मिता पर लेकर प्रश्नचिन्ह

 दुहाई देती फिरूँगी निर्मलता का दर-बदर

 तुम मेरे हमराज़ लिखना सुनहरी स्याही से तब

 मेरा नाम डायरी के पन्नो पर

 और वो सारे अनछुये अफ़साने

 जो लम्हे भर तुम्हारे पास बैठ जाने से

 सवालिया निग़ाह बन खड़ें है मुझ पर

 और लिखना तुम 

 एक नर्म बिस्तर पर

 तुम्हारी उँगलियों को छू लेने का वो मेरा गुनाह

 और आखिरी पन्नो पर लिखना

 एक नस्ल वो

 आबादी का वो हिस्सा 

 जो पुरुष को छूकर हो जाती है बदनाम

 फिर तुम इन जहरीली बातों को

 मल देनां समाज के मुँह पर

हाँ तब इनमे से एक कोई 

पूछेगा आकर

तुम जबाब मत देना

प्रश्न वही दोहराना

क्या एक लड़की 

लड़के को छूकर हो जाती है बदनाम

जब होगा आगाज़ सोच को बदलने की

घिसी-पिटी मानसिकता तब होगी शर्मसार।।

रिंकी कुमारी

एक पगली लड़की

है राह नही ना ही मंज़िल 

बस राही मेरी दोस्त है वो 

एक पगली सी लड़की है 

सब पूछे तेरी कौन है वो

. . .

अफ़साने कितने अंजाने हैं 

कुछ नये हैं  कुछ पुराने हैं

कुछ बनते बनते बन जाते

कोई कहते कहते पूछे वो 

इक लड़की देखी थी पागल 

मुझको बता तेरी कौन है वो 

...

है जबाब नहीं इन सवालों का

बस इक लाचारी सी लगती है 

पर उस पगली की बातें फ़िर 

इन सब पर भारी लगती है 

है नासमझी की हर हद वो

जो बैठ कभी समझूँ उसको 

खुदसे पूछूँ मेरी कौन है वो

. . .

जब चाहत की बातें आती हैं 

मेरे सर की नस दुख जाती है 

नासमझ मुझे समझाती है 

मैं बातों में बहका जाता हुँ 

और पागल मुझे बेहकाती है 

है दुनियादारी की सारी समझ 

दुनियां के लिये अन्जान है वो 

...

तू इससे पहले फ़िर पूछे की 

मुझसे मेरी ही पहचान है वो 

तूने जो पगली लड़की देखी है

मेरी दोस्ती का नाम है वो . . .

Saturday, January 14, 2017

क्या है मेरी बारी में

क्या है मेरी बारी में।

जिसे सींचना था मधुजल से
सींचा खारे पानी से,
नहीं उपजता कुछ भी ऐसी
विधि से जीवन-क्यारी में।
क्या है मेरी बारी में।

आंसू-जल से सींच-सींचकर
बेलि विवश हो बोता हूं,
स्रष्टा का क्या अर्थ छिपा है
मेरी इस लाचारी में।
क्या है मेरी बारी में।

टूट पडे मधुऋतु मधुवन में
कल ही तो क्या मेरा है,
जीवन बीत गया सब मेरा
जीने की तैयारी में|
क्या है मेरी बारी में

हरिवंशराय बच्चन

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल"

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!

अदम गोंडवी