पहला दिन पहली नज़र
मासूम हँसी और
दिल का मेरे इकरार
वो अनकहा सा प्यार
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बातें हुइ चंद यादें हुइ
कुछ खोया खोया लगता था
मुझमे ही तो थी मैं पर
मन सोया सोया रहता था
मुझे झ्झोडा जिसने वो था
एक शर्मीला मेरा यार
वो अनकहा सा प्यार
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था फर्ज हिलोरे मारता
वतन की मोहब्बत कौन जानता
आन्धियां चली मेरे मन में
वो जा रहा था दुर कहीं
बस आँसू ही थे बिछडन में
थी बातें जुबान पर कयी
पर लब खुल ना पा रहे
बस इतना तो पूछूँ मैं
“सच मुझे छोडकर जा रहे?”
दिलों में था जो इंकार
वो अनकहा सा प्यार
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पलट के भी ना देखना
आँसुओं की कीमत पायी है
है कोरा सच ये बिल्कुल
इसमे थोडी रुसवाई है
अगर पलटी मैं या पलटा वो
तो शायद सब थम जाता
जी लेते मिलकर हम
तो क्युँ ना पलटू इक बार
ये था अनकहा मेरा प्यार
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वैभव सागर
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Saturday, February 18, 2017
वो अनकहा सा प्यार -1
Tuesday, February 14, 2017
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे
अदम गोंडवी
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
‘यह अधिकार कहाँ से लाया?’
और न कुछ मैं कहने पाया -
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में -
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
हरिवंशराय बच्चन
Thursday, February 2, 2017
मुझको तेरी अस्ति छू गई
मुझको तेरी अस्ति छू गई है
अब न भार से विथकित होती हूँ
अब न ताप से विगलित होती हूँ
अब न शाप से विचलित होती हूँ
जैसे सब स्वीकार बन गया हो।
मुझको तेरी अस्ति छू गई है।
पर्वत का हित मुझको जड़ न बनाता
प्रकृति हृदय का तम न मुझको ढँक पाता
आज उदधि का ज्वार न मुझे डुबोता
जैसे सब शृंगार बन गया हो।
मुझको तेरी अस्ति छू गई है।
दरिद्रता का यह मतवाला नर्तन
पीड़ाओं का उसमें आशिष-वर्षन
तेरी चितवन का जो मूक प्रदर्शन
तेरी मुख-अनुहार बन गया हो।
मुझको तेरी अस्ति छू गई है।
विद्यावती कोकिल
आह ! वेदना मिली विदाई
आह! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई
छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई
श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाए फिरती कब की
मेरी आशा आह! बावली
तूने खो दी सकल कमाई
चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई
जयशंकर प्रसाद
Wednesday, February 1, 2017
वो मेरे दिल से वकिफ़. . .
वो मेरे दिल से वाकिफ
मैं उसकी रूह से वाकिफ
होती कुछ पल की तकरार
फिर उमङता बेइंतहा प्यार
इश्क है बंदिशो से आजाद
शब्दो से नहीं होता उसे आघात
मोहब्बत की नहीं कोई परिभाषा
एहसास ही है उसकी भाषा
जो दो दिल है समझते
एक दूसरे को है लिखते पढते
ये जिस्म है बस एक जरिया
रूह ही है असली दरिया
जहाँ गिरकर नहीं कोई निकलता
सुकून बस डूबकर ही है मिलता
जमाने की नहीं जिसे परवाह
चाहत ही है जहाँ दरगाह
मैं ऐसे इश्क से वाकिफ
ऐसा इश्क मुझसे वाकिफ…..
आस्था गंगवार
तू तुझमे कोई और है
कुछ बातें हैं तेरी बेबाक सी
कुछ बातों में तू मौन है
कयी राज़ है इस चुप्पी में
पर खामोशियों में एक शोर है
बस इतना ये कह जाती है
तू तुझमें कोई और है
कहीं धरा आकार है तेरा
कहीं धनक का तू रंग है
मधुर बिहग सुर में तेरे
एक बिरह का भी अंग है
सरगम पे एक मोर है नाचता
वो तुझमे तेरे संग है
नदी के बहते पानी सी
और आसमानो की सोच है
कुछ इरादे भी हैं तेरे
और उनमे ही तेरी मौज है
ये पेड़ , हवा , बारिश जो है
तू बँधा इनसे एक डोर है
सब तुझमे है तुझसे पर
तू तुझमे कोई और है