Saturday, August 19, 2017

शबनमी रोशनी की कुछ बूंदें

श्वेत, सर्द आनन्दमय 

चाँद की मोहब्बत भरी रात 

या कहूँ दर्द भरी रात 

इस चमकीली रात में 

बूँद बूँद झरती चाँदनी 

जहां चाँद से जुदा होती 

सुदूर धरती पर कहीं जाकर 

दर -ब -दर ठिकाना ढ़ूढ़ती 

कभी घास पर जा बैठती 

कभी फूलो की पंखुड़ियों पर सजती 

दूर धरा से चाँद को निहारती 

होकर रागमय आनन्द उठाती 

न उसे मृत्यु का भय 

न ही अस्तित्व मिटने का अफसोस 

न ही अनभिज्ञ सूर्य के सत्य से 

बस हैं चन्द्र के प्रेम में बाँबरी 

करके बलिदान अपने जीवन का 

चन्द्र के लिए सूर्य से जीवनदान है मांगती 

अपने अनन्त प्रेम को जीवित रख सके 

ताकि कल रात फिर मिल सके 

रागिनी बनकर, रोशनी बनकर 

और फिर मिट सके शबनमी मोती बनकर ।

      -आस्था गंगवार © 

Friday, August 18, 2017

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

हरिवंशराय बच्चन

लो दिन बिता लो रात गयी

सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था
दिन में होगी कुछ बात नई
लो दिन बीता, लो रात गई

धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फ़ैले,
सौ रजनी सी वह रजनी थी,
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई

चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी,
पूरब से फ़िर सूरज निकला,
जैसे होती थी, सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रात: कुछ बात नई,
लो दिन बीता, लो रात गई

हरिवंशराय बच्चन